Homeबातें भूली बिसरें फ़िल्मों कीबाते भूली बिसरी फिल्मो की -फ़िल्म यात्रिक(1952)

Related Posts

बाते भूली बिसरी फिल्मो की -फ़िल्म यात्रिक(1952)


आज मे बात करने जा रहा हूं एक ऐसी फिल्म के विषय मे जो स्वय मे एक नायाब नगीना है जो आपको आध्यात्म की एक अलग ही दुनिया से परिचित करवाएगा और आपको एक नया जीवन दर्शन प्रदान करेगा। परन्तु अफ़सोस इस फिल्म के विषय मे कई भारतीय फिल्मो के जानकारों को भी जानकारी नहीं है ।


जी हाँ हम बात कर रहे है 1952 मे प्रदर्शित फिल्म यात्रिक के विषय मे।यह फिल्म आपको उस कालखण्ड मे ले जाती है जब बाबा बद्री विशाल की यात्रा पैदल ही की जाती थी।


फिल्म का नायक प्रबोध ( वसंता चौधरी) यात्रा पर निकलता है उसकी यात्रा का प्रथम चरण हरिद्वार से प्रारम्भ होता है वहा एक पाखंडी पंडित द्वारा यह कहने पर की सामान्य वस्त्रों से यात्रा का लाभ प्राप्त नही होता तब वह गेरुआ वस्त्र धारण कर बद्री धाम की यात्रा पर निकलता है । जहां वह सधु वेश मे लोगो का सम्मान पाता है वहा एक वृद्ध स्त्री व उसकी पुत्री द्वारा उसे एक माँ व बहन का प्यार मिलता है क्योंकि उस वृद्ध स्त्री का पुत्र जो की मृत्यु को प्राप्त हों गया था प्रबोध की ही आयु का था। जब वह उस स्त्री की पुत्री से मिलने के लिए उसका पता मांगता है तो उसे पता चलता है की वह एक वैस्या है तब वह अपने आप को कोसता हुआ की वह एक वैश्या से भावनात्मक रूप से कैसे जुड़ गया वह आगे बढ़ता है । रास्ते मे कई पड़ावो को पार करते हुए उसे कई दैवीय शक्तियों के दर्शन होते हैं । बद्री नारायण के दर्शन के पश्चात वह आगे अन्य तीर्थो की यात्रा पर निकलते हैं वहा उनको एक साधु के दर्शन होते हैं जो उन्हे स्वय को जानने की सलाह देते है वही आगे की यात्रा में सूत्रधार की भूमिका निभाते हैं । वहा प्रबोध यह भी जानता है की भगवान केवल मंदिर मे ही नही सर्वत्र व्याप्त है । यही वह एक अल्हड़ बाल विधवा से मिलता है दोनो मे प्रेम हिलोरे मारता है यही से फिल्म बोझिल होना शुरु होता है ऐसा लगता है की निर्देशक अपने उद्देश्य से भटक गये है। परन्तु फिल्म का अंत आपकी सभी शंकाओ का समाधान कर देगा। फिल्म के अंत मे नायक बोलता है की मुझे रानी ( नायिका का नाम) से सब कुछ् मिला पर ये मन है की इसकी आथाह भूक मिटती नहीं ये और ओर बहुत कुछ मांगता है ।यही फिल्म का सार है की हमारा मन माया मोह के चककर मे इस प्रकार फंसा हुआ है की यह केवल उसी मे उलझ कर रह जाता हैं ।
अंत मे जब यात्रा की समाप्ति पर नायिका का गंतव्य स्थान आ जाता है ओर वह नायक को बोलती है की मे जा रही हु ऐसा वह कई बार बोलती है उधर से उसकी नानी उसे बार बार बुलाती हे पर नायक निंद्रवस्था मे भी ध्यान मे लीन है । अन्तः वह थक हार कर चली जाती हैं और उसके पश्चात रह जाती हैं नायक के चेहरे पर पूर्ण आनंद मिश्रित मुस्कुराहट जिसमे वह सभी बाह्य बंधनों से मुक्त हो इस परम आनंद परमात्मा मे विलीन हो जाता है।
फिल्म हिंदी में है पर फिल्म की समस्त कास्ट बंगाल से है इसीलिए उनको पहचान पाना मुश्किल है फिल्म मे एकमात्र जाना पहचाना नाम हिंदी पट्टी के दर्शकों के लिए अभी भट्टाचार्य है जो ब्रह्मचारी के रूप मे है अपने अनूठे रूप के कारण उन्हे भी पहचानना मुश्किल हों जाता हैं । उनकी आवाज़ उनकी पहचान जरूर कराती है ।
प्रबोध के रूप मे बसंत चौधरी फिल्म की जान है नायिका रानी के रूप मे अरुधनती मोहक लगती है अन्य सहायक भूमिकाओं मे सभी का नाम नही पता पर सभी का काम सरहानीय है।
फिल्म आपको उस दौर मे ले जाएगी जब बाबा बद्री विशाल की पैदल यात्रा हुआ करती थी। फिल्म आपको एक अलग ही अध्यात्मिक दुनिया से रूबरू करवाएगी।
फिल्म के निर्देशक कार्टिक चाटर्जी बंगाल के जाने माने निर्देशक रहे है ।
फिल्म मे संगीत महान संगीतकार पंकज मलिक का है सभी गीत आध्यात्म के रंग मे रंगे हुए है। फिल्म हालांकि श्वेत श्याम मे है परन्तु सभी तीर्थ स्थलों व उत्तराखण्ड की छवि खूबसूरती से पर्दे पर उकेरी गयी है।
फिल्म 1952 की है जिससे आज के दर्शक फिल्म से दूरी बना सकते हैं पर यदि आप सच्चा अध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करना चाहते है तो एक बार इस नायब कृति का आनंद अवश्य ले।
फिल्म आपको यूटूब पर आसानी से उपलब्ध हों जाएगी।

Facebook Comments Box

Latest Posts