1949 में एक 25 वर्षीय युवक संगीतकार नौशाद अली से मिलने आया. वह निराश और परेशान दिख रहा था।उसने संगीतकार नौशाद अली कहा: “बंबई में मेरा मन नहीं लग रहा है. मैं राग-आधारित रचनाएँ गाने के लिए पंजाब वापस जा रहा हूँ।” “आप चंद रोज़ रुकिए.मैं आपके लिये ऐसे गाने तैयार करूंगा-” नौशाद साहब ने उसे आश्वस्त किया और जल्द ही उस भ्रमित युवक के लिए एक राग आधारित गीत की रचना की…और संगीत-इतिहास के एक महान अध्याय की शुरुआत हुई.
वह युवा गायक कोई और नहीं महान मुहम्मद रफ़ी थे, और वह गीत जिसने उन्हें शुरुआती महानता तक पहुँचाया वो था :”सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे” (फ़िल्म: दुलारी:1949) उस दौर की लोकप्रिय फ़िल्म पत्रिका ‘स्टार एंड स्टाइल’ में छपा था :”अगर नौशाद ये प्रयास न करते तो फिल्म संगीत निश्चित रूप से मुहम्मद रफ़ी को खो देता।
बेहतरीन संगीतकार और अब तक के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक की जोड़ी ने फिल्म संगीत को बदल दिया और पार्श्व-गायन को वो सम्मान दिलवाया. जिसका वो हक़दार था.अजीब इत्तेफ़ाक़ की बात है कि सुर-सम्राट मु.रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर और नौशाद साहब का 25 दिसंबर को हुआ था. कई लोगों की राय है कि नौशाद साहब अगर ऱफी साहब के मेंटोर नहीं बनते तो रफ़ी साहब आज रफी साहब न होते.
नौशाद साहब की सलाह के बाद रफ़ी साहब ने कभी भी अपनी अद्भुत गायन क्षमताओं पर विश्वास नहीं खोया. 70 के दशक की शुरुआत में किशोर कुमार के धूमकेतु की तरह छा जाने के बाद जब रफ़ी साहब को आत्म संदेह होने लगा,तब भी नौशाद साहब ने उनका साथ नहीं छोड़ा. उस दौर के मेरे मित्र फ़िल्म इतिहासकार और राजू भारतन ने मार्मिक ढंग से लिखा था कि कैसे नौशाद साहब ने रफ़ी के घायल मानस पर मरहम लगाते हुए उन्हें एहसास दिलाया दिलाया था कि वह अभी भी अद्वितीय हैं-सर्वश्रेष्ठ हैं. याद रहे! नौशाद साहब ने सिर्फ़ एक बार किशोर कुमार से फिल्म ‘सुनहरा संसार’ में एक गीत गवाया था,“हेलो हेलो क्या हाल है” साथ में थीं आशा भोसले.पर ये गीत किन्ही कारणों से फ़िल्माया ही नहीं गया. इसके अलावा उन्होंने कभी भी किशोर की आवाज़ का इस्तेमाल नहीं किया.
एक और दिलचस्प बात! रफ़ी साहब का दिल कभी भी फ़िल्मी-संगीत में नहीं था,उसे वो कमतर और विशुद्ध रूप से व्यावसायिक मानते थे. बड़े गुलाम अली खान, जीवनलाल मट्टू, फिरोज़ निज़ामी, अब्दुल वाहिद ख़ान आदि से प्रशिक्षित रफी ‘पार्श्व गायक’ के बजाय ‘शास्त्रीय गायक’ बनना चाहते थे. नौशाद साहब ने ही मो.रफ़ी को फ़िल्मों के लिए शास्त्रीय गीत गाने के लिए प्रेरित किया था. फिल्म समीक्षक फ़हीम मलिक ने 1984 में उर्दू पत्रिका ‘शमा’ में लिखा था कि नौशाद ने रफ़ी को ध्यान में रखते हुए ही शकील बदायुनी को ‘इल्मी-शायर’ से ‘फिल्मी-शायर’ बनाया था. कौन भूल सकता है कि शकील,नौशाद और रफ़ी की तिकड़ी को जिसने श्रोताओं को अपने तिलिस्म में जकड़ लिया था,जिससे आज तक वो बाहर नहीं निकल पाए.
रफ़ी साहब के पास एक साथ अर्धचंद्राकार और डी-क्रेसेंडो का एक प्राकृतिक सप्तक था. वह सहजता से सात स्वरों और उप-नोटों के माध्यम से अपनी आवाज़ को संपूर्ण संगीतमय आरोह-विरोह के साथ ले जा सकते थे.बड़े गुलाम अली ख़ान साहब ने नौशाद साहब को ऐसी रचनाएँ बनाने की सलाह थी जो रफ़ी साहब की आवाज़ की शानदार रेंज को प्रदर्शन करने में सक्षम हों.नौशाद साहब ने शकील बदायुनी के साथ मिलकर रफ़ी साहब के लिए ‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले’ (बैजू बावरा, 1952) रचना की. ये रचना विशुद्ध “राग दरबारी” पर, आधरित थी, जिसके रचियता तानसेन माने जाते हैं. इस गाने की रिकॉर्डिंग के पहले नौशाद साहब रफ़ी साहब को रोज़ घर बुलाते थे और आवाज़ को ज़्यादा से ज़्यादा ऊपर उठाने का रियाज़ कराते, ताकि वो गाने की आख़री रेंज तक जा सकें.जब नौशाद साहब पूरी तरह सन्तुष्ट हो गये तो उस गाने की रेकॉर्डिंग रखी गयी.ठीक समय पर रफ़ी साहब स्टूडियो पहुँच गये.गाने के शुरुआती स्वरों को उन्होंने बड़ी सहजता से गाया,पर गाने के अंतिम रेंज पर पहुंचते पहुंचते गले की तंत्रियों में “झमक” पैदा हो गयी और उनमें से ख़ून रिस आया.रफ़ी साहब ने ये बात किसी को नहीं बताई.गाना OK होने के बाद नॉशाद साहब ने रफ़ी साहब के गले से ख़ून निकलते देखा तो उन्हें फौरन अस्पताल लेकर गये.डॉक्टरों ने रफ़ी साहब को 3 हफ्ते तक गले को आराम देने की सलाह दी. रफ़ी साहब के इस जज़्बे और समर्पण को और नौशाद साहब के इस कम्पोज़िशन को करोड़ों सलाम.
नौशाद अली अपने समकालीन महान संगीतकारों जैसे एस.डी.बर्मन, चित्रगुप्त, सलिल चौधरी, रवि, मदन मोहन, ख़ैयाम, शंकर-जयकिशन जैसे महान संगीतकारों से एक बात में थोड़ा आगे थे.वे एक अच्छे शायर भी थे.इसीलिए उनकी शानदार रचनाओं को उनकी अपनी परिष्कृत-काव्य संवेदनाओं के साथ जोड़ा गया और यह तब सामने आया जब उन्होंने रफ़ी साहब से गवाया: ‘कोई सागर दिल को बहुत नहीं…’ (दिल दिया, दर्द लिया, 1966) या ‘आज पुरानी राहों’ से, कोई मुझे आवाज़ न दे’ (आदमी- 1968) ये भी कहा जा सकता है कि शकील बदायुनी द्वारा लिखे गए इन गानों में नौशाद ने संगीत छंद रचे थे!!
31 जुलाई 1980 में रफ़ी साहब के निधन के बाद एक साक्षात्कार में नौशाद ने कहा था :” कोई भी मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ की असीम सीमा को पूरी तरह से नहीं जान सकता है.”यह नौशाद साहब की विनम्रता थी कि उन्होंने कभी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि केवल उन्होंने ही मो.रफ़ी की आवाज़ का सबसे अच्छा इस्तेमाल किया था.
रफ़ी साहब एक पंजाबी मुसलमान थे,जिनका जन्म अमृतसर जिले के कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसम्बर 1924 को हुआ था.उनकी मातृभाषा ‘पंजाबी’ थी उर्दू नहीं. वास्तव में, उनका पहला रिकॉर्ड किया गया गाना फिल्म ‘गुल बलोच’ (1944) का एक पंजाबी नंबर ही था. इसलिए, जब उन्होंने बॉम्बे में ‘हिंदी-उर्दू’ गाने गाना शुरू किया, तो उनकी पंजाबी ने उर्दू में हस्तक्षेप किया.लखनऊ के रहने वाले नौशाद एक बार फिर रफ़ी के बचाव में आए और उन्हें उर्दू-डिक्शन सिखाया और बदले में रफ़ी साहब ने नौशाद साहब को पंजाबी सिखाई.
परफेक्शनिस्ट नौशाद हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में एकमात्र संगीतकार थे जिन्होंने रफ़ी को यह बताने की हिम्मत की कि उन्हें संगीतकार की रचना की सटीक प्रस्तुति ही गायक को ‘मुक़म्मल’ बनाती है और जब तक वह संतुष्ट नहीं होता तब तक उन्हें गाना चाहिए. उन्होंने राग ‘भीम-पलासी’ का सर्वोच्च परिणाम प्राप्त करने के लिए रफी साहब से “चले आज तुम जहां से,हुई ज़िन्दगी पराई…” (उड़ान-खटोला- 1954) सात बार रिकॉर्ड किया था. रफ़ी की आवाज़ के शानदार ‘लहरदार पैटर्न से’ वाकिफ़ नौशाद ने खुमार बाराबंकवी की ‘दिल की महफ़िल साजी है,चले आइये…’ (साज़ और आवाज़, 1966) की रचना की. इस अविस्मरणीय गाने में आप लहर की तरह उतार-चढ़ाव महसूस कर सकते हैं.खुद एक बहुत अच्छे पियानोवादक नौशाद ने रफ़ी साहब की बहुमुखी प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए ही पियानो पर की रचना की रची थी.वह थी “आज की रात मेरे, दिल की सलामी लेले..”(राम और श्याम,1967). दिलीप कुमार पर फिल्माए गई इस रचना के सृजनकर्ता नौशाद को पता था कि दिलीप कुमार और रफ़ी दोनों ही पियानो को बेहद सहजता से बजा सकते हैं.रफी की तरह,नौशाद भी किरदार के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर ही गाना कंपोज़ करते थे.
रफ़ी साहब और नौशाद दोनों ही महान पर्यवेक्षक थे और संगीत को आत्मसात करने में विश्वास करते थे.महान मुहम्मद रफ़ी के अनगिनत श्रोताओं और प्रशंसकों को हमेशा नौशाद साहब का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने 1949 में रफ़ी साहब को बॉम्बे (मुम्बई) से नहीं जाने दिया. हिंदी फ़िल्म-संगीत इतना मालामाल नहीं होता अगर रफ़ी साहब शास्त्रीय-संगीत के प्रेम की ख़ातिर पंजाब चले गए होते. एक बार और रफ़ी साहब ने गाना बंद करने का फैसला लिया था जब किसी ने उन्हें हज के दौरान कहा कि गायन इस्लाम में निषिद्ध है. इस बार भी नौशाद साहब ही थे जिन्होंने गायन में उनकी वापसी कराई.
रफ़ी-नौशाद के संयोजन के माध्यम से एक चीज़ और प्रतिध्वनित होती है,वह है उनकी भजनों की अमर विरासत जिसमें उनका साथ दिया शकील बदायुनी ने. पूरी दुनिया में कहीं भी ऐसा संयोजन नहीं है जो इन तीनों ने अपनी दिव्य रूप से तैयार की गई रचनाओं के साथ लाखों लोगों को बेजोड़ आंतरिक आनंद प्रदान किया हो. अनेकानेक भजनों में से बतौर बानगी केवल एक ही भजन काफ़ी है. “इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है” (फ़िल्म-अमर-1954 ) सुनें, यह समझने के लिए कि ऐसी ‘आत्मा उत्तेजक संगीत रचनाएं’ वर्षों में केवल एक बार आती हैं.और जो भी हो,भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करने के नापाक मंसूबे कभी सफल नहीं होंगे क्योंकि ‘रफी-नौशाद-शकील’ के नग़मे सभी के दिलों और दिमागों में करुणा को जगाते रहेंगे और हमें मानवता पर होने वाले सभी हमलों पर क़ाबू पाने में मदद करते रहेंगे.
अंत में सिर्फ़ इतना ही कहना है कि नौशाद साहब ने भले ही केवल 67 फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया हो लेकिन “रफी-नौशाद की जोड़ी” ने हिन्दी फिल्म संगीत को न केवल आकार दिया बल्कि ख़ुद को भी अमर कर दिया,ये तो मानना ही पड़ेगा.
🎖️सलाम है नौशाद साहब को,जिसने हम संगीत प्रेमियों को मोहम्मद रफ़ी जैसा अनमोल गायक दियाउन्हें दिल से नमन करते है-सलाम पेश करते हैं
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