हिन्दी सिनेमा का एक ऐसा फ़िल्मकार, एक ऐसा सृजनकर्ता, मध्यम वर्ग की कहानियों को बड़े पर्दे पर उतारने वाले लेखक, पटकथा लेखक, ‘बासु चटर्जी’, जिनकी फ़िल्मों में ग्लैमर नहीं होता था, बल्कि उनकी फ़िल्मों का नायक-नायिका फिल्म में ज्यादा परिधान नहीं बदलते थे. उनकी फ़िल्मों में केवल और केवल किरदार होते थे. यथार्थवादी सिनेमा को सिनेमा के धरातल पर उतारने वाले बासु दा की फ़िल्मों का हीरो एक – साथ बीस – बीस गुंडों को भी नहीं मारता था. भारतीय सिनेमा के आईने में सादगी उकेरने वाले बासु दा की फ़िल्मों का हीरो लंबे – लंबे संवाद नहीं बोलता था, और न ही रूमानी शायरी कहता था. बल्कि उनका हीरो साधारण आदमी के रूप में एक जोड़े कपड़े में पूरी फिल्म खत्म कर देता था. बासु दा के हीरो न सुपरस्टार राजेश खन्ना थे, और न ही एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन उनकी फ़िल्मों के सुपरस्टार अमोल पालेकर थे, जो आम मध्यम वर्ग के हीरो के दौर में उभरे थे. बासु चटर्जी की सिनेमाई समझ का दस्तावेज अमोल पालेकर अभिनीत वो मूलतः कॉमिक अंदाज़ उनका सिग्नेचर स्टाइल जिसको पर्दे पर उतारने वाले बासु चटर्जी जिसके अद्भुत सृजनकर्ता थे खुद बासु दा ही थे. जिन्होंने राजेश खन्ना के सुपरस्टारडम एवं अमिताभ बच्चन की आँधी के बीच अपने साधारण से दिखने वाले अमोल पालेकर को ऐसा गढ़ा कि यथार्थ सिनेमा के लिए नायाब तोहफ़ा साबित हुए.
बासु चटर्जी खुद को कला फिल्मों का निर्देशक सुनना पसंद नहीं करते थे, तो फिर ऐसा भी नहीं है कि उनको व्यापारिक सिनेमा का निर्देशक कहा जाए, तो भी उन्हें सुनना पसंद नहीं था. दरअसल! बासु चटर्जी साठ-सत्तर के दशक के मध्यमार्गी सिनेमा को पर्दे पर उतारने वाले अद्भुत सृजनकर्ता थे. बासु दा की फ़िल्में आज बड़े बजट वाली फ़िल्मों के फिल्म कारों के लिए एक सबक है, कि कम पैसे से भी आप कालजयी फ़िल्मों का निर्माण कर सकते हैं बशर्ते आपकी फिल्म यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए आप भी कितने ईमानदार हैं. बासु चटर्जी ने ऋषिकेश मुखर्जी, वासु भट्टाचार्य, गुलजार की तरह मध्यमार्गी सिनेमा के उस स्तर को विमल रॉय, गुरुदत्त साहब, आदि ने जहां छोड़ा था. उससे आगे इस मुकाम पर पहुंचाने वाले फ़िल्मकार हैं, जिनकी फ़िल्में मूलतः फ़िल्मों का मानक मानी जाती है. जिनकी फ़िल्मों का स्तर वैश्विक है, एवं उन फ़िल्मों से साहित्य की गहरी पकड़, एवं सिनेमैटिक लिहाज़ से या यूं कहें मूलतः फ़िल्मों के उस्ताद बासु चटर्जी ने भारत के मध्यम वर्ग को अपनी फिल्मों का आधार बनाया. फलस्वरूप उन्हें मध्यम वर्ग के दर्शकों का भरपूर प्यार मिला.
बासु चटर्जी हमेशा अपनी कालजयी कॉमिक फिल्म ‘छोटी सी बात’ से आम जनमानस, माध्यमवर्गीय लोगों को हंसाते रहेंगे. फ़िल्म ‘छोटी सी बात’ में अशोक कुमार ने सीधे – सादे अमोल पालेकर को बदल कर रख दिया था . अमोल पालेकर ने असरानी की चापलूसी को अपनी अदाकारी से बदला लिया, एवं अपने अभिनय से उस किरदार को अमर कर दिया. अमोल पालेकर एवं उनकी प्रेयसी विद्या सिन्हा साधारण थे. उस समय के मध्यमवर्गीय परिवार का प्रतिनिधित्व करते थे. फिल्म में असरानी तेज तर्रार और स्मार्ट थे, और हर किसी को उल्लू बनाने क्षमता थी, एवं अमोल पालेकर को गिराने की फिराक में लगे रहते थे. अमोल पालेकर सीधे थे, वो उनकी कूटनीतिक चालों का जवाब नहीं दे पा रहे थे. अमोल पालेकर अपनी किस्मत बदलने के लिए अशोक कुमार के पास गए. जिन्होंने अमोल पालेकर को जीवन की चालों के बारे में सिखाया, एवं उनकी शख्सियत को निखारा. जिसके बाद अमोल पालेकर ऐसा बदले कि असरानी हाथ मलते रह गए. इस फिल्म को देखने के बाद किसी भी आम लड़के को एक आत्मविश्वास आ सकता है. फिल्म के सभी गीत सुपरहिट थे. जानेमन जानेमन तेरे ये दो नयन, ना जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ, ये दिन क्या आए, आज भी गुनगुनाए जाते हैं. अमोल और विद्या का रोमांस आम आदमी की जिंदगी का रोमांस है, जो छोटी-छोटी बातों में जीवन की ख़ुशी को ढूंढता है. यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म मानी जाती है. इस फिल्म को बासु चटर्जी की सिनेमाई समझ का दस्तावेज है. यह फिल्म याद दिलाती रहेगी बासु चटर्जी के उस दौर की जब कमर्शियल सिनेमा के दौरान चट्टान की तरह टिके रहे.
अजमेर में जन्मे और पले-बढ़े बासु चटर्जी ने अपने करियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी. वे एक जमाने की चर्चित मैगजीन ब्लिट्ज में लगभग दो दशकों तक काम करते रहे. इसके बाद उन्होंने फिल्मों का रुख किया. राजकपूर और वहीदा रहमान की मशहूर फिल्म तीसरी कसम में उन्होंने जाने-माने निर्देशक बासु भट्टाचार्य के असिस्टेंट के रूप में जुड़े. उनका इस फिल्म के साथ जुड़ना आम बात नहीं थी. यह आदर्श दौर की आदर्श दोस्ती एवं संघर्ष को बयां करता है. बासु चटर्जी को पता चला कि उनके मित्र कविराज शैलेन्द्र 1963 में जब ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर फिल्म का निर्माण शुरु किया तो बासु ने फिल्म से जुड़ने की इच्छा प्रकट की. सोचा कि दोस्त की फिल्म के सेट पर फिल्म मेकिंग के गुर सीखने का मौका मिलेगा तो आसानी होगी. फिल्म के निर्माता एवं मित्र होने के बाद भी कविराज शैलेंद्र ने कहा “निर्देशक बासु भट्टाचार्य से मिलना होगा, अगर उन्होंने हाँ कह दिया तो फिल्म के साथ जुड़ सकते हो” मुलाकात हुई तो कार्टूनिस्ट की समझदार और जागरुक पृष्ठभूमि की वजह से बासु भट्टाचार्य तैयार हो गए. ‘तीसरी कसम’ के बाद बासु चटर्जी ने गोविंद सरैया के साथ ‘सरस्वतीचंद्र’ में भी असिस्टेंट का काम किया. दूसरी फिल्म व्यपारिक रूप से सफल रही और पहली फिल्म समीक्षात्मक एवं व्यपारिक रूप से सफल रही. दो फिल्मों में सहायक रहने के बाद बासु चटर्जी ने तय कर लिया कि अब वह खुद निर्देशन करेंगे. इसके तीन साल बाद 1969 में बासु चटर्जी ने अपनी पहली फिल्म निर्देशित की. फिल्म का नाम ‘सारा आकाश’ था.इस फिल्म के साथ बासु चटर्जी ने फिल्मों में निर्माण और निर्देशन की शुरुआत की. फिल्म की कहानी राजेंद्र यादव के लिखे उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर आधारित है. कॅरियर के शुरुआती दौर में फिल्म सुपरहिट साबित हुई. इस फिल्म में राकेश पांडे, मधु चक्रवर्ती, नंदिता ठाकुर, एके हंगल और दीना पाठक मुख्य भूमिकाओं में थे. फिल्म की कहानी में आगरा का एक संयुक्त परिवार की कहानी दिखाई गई है. जो शादी होकर आने वाले एक नए कपल का वेलकम करता है. इसके बाद इस घर में तकरार शुरू होती है. शादी के बंधन में बंधने वाले दोनों ही लोग घरेलू जिंदगी जीने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे. अंत में शादी खत्म हो जाती है. इस फिल्म की पटकथा खुद बासु चटर्जी ने ही लिखी थी. इसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक के फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया था.
यहां से शुरू हुआ सिलसिला छोटी सी बात, रजनीगंधा, बातों-बातों में, एक रुका हुआ फैसला और चमेली की शादी तक कई यादगार फिल्मों तक पहुंचा. बासु दा कार्टूनिस्ट थे, यही कारण रहा कि उन्होंने बेरोजगारी, सामजिक कुरीतियों को ग्लोरीफाई नहीं किया, बल्कि अपनी फ़िल्मों से आम सामजिक जीवन, मध्यमवर्गीय को दिखाया, जिसमें दर्शक अपने से जुड़ी हुई जिंदगियां पर्दे पर देखते थे, तो उनके साथ प्रवाह में बह जाते थे. बासु चटर्जी ने अपनी फ़िल्मों में कटाक्ष, दुःख, दर्द, आदि को छोड़कर आम भारतीय या मूल भारतीय कॉमिक विधा पर फ़िल्में बनाते हुए इसी तरह वह लोगों को हंसाते रहे तथा जीवन की कठिनाइयों को हल्का करते रहे. दर्शकों को उनकी खुद की ज़िन्दगी से वाकिफ़ करवाते थे, लोग जो जीते हैं, लेकिन पर्दे पर उसको महसूस कर सकें इस तरह की फ़िल्मों के सूत्रधार बासु चटर्जी को ही कहा जा सकता है.
रजनीगंधा फिल्म में अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा और दिनेश ठाकुर ने काम किया था. ये फिल्म एक महिला की कहानी है जो, अपने वर्तमान और अतीत के बीच संघर्ष करती है. वह लंबे समय तक एक रिलेशनशिप में रहती है, लेकिन उसके बाद उसे पता चलता है कि उसका ब्वॉयफ्रेंड उससे प्रेम नहीं करता, बल्कि वह उसका इस्तेमाल कर रहा है. जब वह अपने पुराने प्रेमी से मिलती है तो, उसे अहसास होता है कि ये रिश्ता उसकी भूल थी. इसी अहसास में चलने वाली ये कहानी एक समय की बड़ी हिट थी. इस फिल्म के गीत, ‘कई बार यूं भी देखा है. ‘ और ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’ आज भी बेहद पसंद किए जाते हैं. हिन्दी सिनेमा एवं सिने जगत में आज भी रजनीगंधा की खुशबू को महसूस किया जाता है, और रजनीगंधा की खुशबू के साथ एक भीनी खुशबू बासु चटर्जी की भी आती है, जो हमारे अंतर्मन को महका देती है.
बासु चटर्जी ने 1970-80 के दशक में ‘छोटी सी बात’ , बातों बातों में, मंजिल, खट्टा मीठा, चमेली की शादी, रजनीगंधा, चितचोर, पिया का घर, सारा आकाश, स्वामी, शौकीन, एक रुका हुआ फैसला जैसी बेहतरीन फिल्में दीं. उन्होंने हमेशा परिवार के लिए फिल्में बनाईं जो उन्हें हमेशा भारतीय परिवारों में अमर रखेंगी.बासु चटर्जी ने 30 से अधिक हिंदी फिल्मों का निर्देशन किया और साथ ही कई बंगला फ़िल्मों का भी निर्देशन किया. दूरदर्शन के लिए उन्होंने रजनी, दर्पण, कक्काजी कहिन और ब्योमकेश बक्शी जैसे धारावाहिकों का निर्माण किया. न जाने क्यूं, होता है ये जिन्दगी के साथ आदि.
बासु चटर्जी की एक कालजयी कॉमिक फिल्म ‘खट्टा – मीठा’ यह फिल्म 1978 में आई थी. फिल्म में अशोक कुमार और पर्ल पद्मसी मुख्य किरदार थे. फिल्म में दोनों की शादी काफी कम उम्र में हो जाती है और किसी कारणवश दोनों की विधवा-विधुर हो जाते हैं. इसके बाद दोनों आपस में शादी करने का फैसला करते हैं. इस कॉमेडी फिल्म में राकेश रोशन, देवेन वर्मा, प्रीति गांगुली और मास्टर राजू जैसे कई अन्य कलाकार भी हैं. समीक्षकों एवं दर्शकों को यह फिल्म खूब पसंद आई थी. इन फिल्मों के अलावा, बासु चटर्जी ने 1979 में बातों-बातों में, 1982 में शौकीन और 1986 में चमेली की शादी जैसी कई सफल फिल्में दी, जो लोगों को आनंद के उस सफ़र में ले जाती हैं, जिसको व्यक्त करने के लिए एक ही नाम जेहन में आता है ‘बासु चटर्जी’ सिर्फ और सिर्फ ‘बासु चटर्जी’…
अमोल पालेकर की ज़िन्दगी की शोहरत एवं उनका कॉमन मैन शख्सियत बनाने वाले बासु चटर्जी को याद करते हुए अमोल पालेकर बासु चटर्जी को हिन्दी सिनेमा का बेह्तरीन फ़िल्मकार मानते हुए कहते हैं “मुझे उन्होनें ही बनाया. एवं उस व्यपारिक सिनेमा के दौर में मुझे पर्दे पर नायक के रूप में उतारा यह बासु दा ही कर सकते थे”, वर्ना मुझमे ऐसा कुछ खास नहीं था, मेरी प्रतिभा के साथ उस महान सृजनकर्ता ने ही न्याय किया”. कोई आपके लिए कुछ करे शोहरत मिलने के बाद भी अगर हम उनकी शख्सियत का मान करें कृतज्ञता व्यक्त करते हैं तो यह हमारी बेह्तरीन शख्सियत का परिचायक है. अमोल पालेकर यथार्थ, मध्यमार्गी सिनेमा, के सुपरस्टार कहे जाते हैं. इसके साथ ही उन्होंने निर्देशन की दुनिया में अपनी बुद्धिमत्ता के भी झंडे गाड़े. अमोल पालेकर अपनी इस सफल सिनेमाई समझ विकसित होने के लिए उन फ़िल्मों के तजुर्बे एवं बासु चटर्जी के द्वारा मिले मार्गदर्शन को ही मानते हैं, लेकिन अमोल पालेकर बासु चटर्जी की शख्सियत को भरपूर सम्मान न मिलने पर दुःखी भी होते हैं. मुझे लगता है कि हिन्दी सिनेमा शायद ही समानांतर सिनेमा के इन नायाब सितारों का कभी सम्मान कर सके, लेकिन बासु चटर्जी जैसे दूरदर्शी फ़िल्मकार की छवि हम सिने प्रेमियों के जेहन में आज भी अंकित है, और तब तक रहेगी जब तक हिन्दी सिनेमा रहेगा. यह सम्मान किसी भी सम्मान से बड़ा है. भारतीय मध्यमार्गी सिनेमा के अग्रदूत बासु चटर्जी को हमारा प्रणाम